
बीबीएन, नेटवर्क। डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम एक बार फिर जेल की सलाखों से बाहर हैं। रोहतक की सुनारिया जेल में साध्वियों के यौन शोषण और पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या जैसे संगीन मामलों में दोषी करार दिए गए राम रहीम को इस बार 40 दिन की पैरोल मिली है। 5 अगस्त की सुबह, कड़ी सुरक्षा के बीच वह जेल से बाहर निकले और सीधे सिरसा स्थित डेरा आश्रम रवाना हुए।
यह 14वीं बार है जब राम रहीम को जेल से बाहर आने का मौका मिला है। यह कोई साधारण राहत नहीं है, यह लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के उस बारीक संतुलन की परीक्षा है, जिसे बार-बार डगमगाने दिया जा रहा है।
इससे पहले 9 अप्रैल को उन्हें 21 दिनों की फरलो दी गई थी। यदि केवल बीते चार महीनों की बात करें तो वह कुल 91 दिन जेल से बाहर रहेंगे — एक ऐसा तथ्य जो हरियाणा सरकार और जेल प्रशासन की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
राम रहीम को मिली यह राहत जेल नियमों की ‘कानूनी व्याख्या’ के तहत भले ही सही ठहराई जाए, लेकिन पीड़ित पक्ष और सामाजिक चेतना रखने वाले तबके के लिए यह न्याय प्रक्रिया की धार को कुंद करने जैसा प्रतीत होता है। यह भी उल्लेखनीय है कि पैरोल की शर्तों के अनुसार राम रहीम अपने सिरसा स्थित आश्रम में ही रहेंगे, लेकिन डेरा समर्थकों की सक्रियता और पिछले अनुभवों को देखते हुए प्रशासन की जिम्मेदारी भी उतनी ही गंभीर हो जाती है।
राम रहीम पर लगे आरोप किसी साधारण अपराधी के नहीं हैं। एक ओर जहां अदालतों ने उसे दोहरे जीवन का प्रतीक मानते हुए कठोर सजा सुनाई, वहीं बार-बार दी जा रही ये छूटें कानून की गरिमा और पीड़ितों के अधिकारों को धूमिल करती दिखती हैं।
हरियाणा सरकार पर पहले भी यह आरोप लगता रहा है कि वह राजनीतिक लाभ के लिए राम रहीम को छूट देती है। विशेषकर चुनावी मौसम में डेरा के प्रभाव को देखते हुए इस तरह की पैरोल या फरलो को सहज रूप से ‘कानूनी प्रक्रिया’ नहीं माना जा सकता।
अब जब राम रहीम 14 सितंबर तक बाहर रहेंगे, तो यह देखना अहम होगा कि सरकार और प्रशासन इस अवधि को किस प्रकार नियंत्रित करते हैं — और सबसे महत्वपूर्ण बात, क्या न्याय के मूल स्वरूप को बनाए रख पाते हैं?