
रोटी या अपमान: ग़ाज़ा की महिलाएँ युद्ध और वासना के बीच क़ैद
बीबीएन, नेटवर्क, 3 अक्टूबर। गाजा की धरती पर बीते दो वर्षों से युद्ध की आग थमी नहीं। मलबों के बीच सांस लेती ज़िंदगियाँ अब महज़ आँकड़ों में सिमटती जा रही हैं। भूख, प्यास और विस्थापन की त्रासदी के बीच अब एक और भयावह सच सामने आया है ,महिलाओं के यौन शोषण का।
राहत और मदद के नाम पर भूख से तड़प रही महिलाएँ अब “एक वक़्त की रोटी” के बदले अपनी देह की बोली लगते देख रही हैं। स्थानीय पुरुषों से लेकर कुछ राहतकर्मियों तक, अनेक हाथ अब दया नहीं, सौदेबाज़ी के लिए बढ़ रहे हैं।
भूख से बड़ी लाचारी, शर्म से गहरी चुप्पी
गाजा की रूढ़िवादी संस्कृति में इस अमानवीयता पर आवाज़ उठाना कठिन है। इसलिए अधिकतर महिलाएँ दर्द को सीने में दफ़्न कर लेती हैं। फिर भी कुछ ने साहस जुटाकर अपने अनुभव साझा किए”कहा गया कि अगर खाना चाहिए तो साथ चलो”, “मुझसे कहा गया कि वो मुझसे शादी करेगा, पर शर्त थी कि पहले रिश्ता साबित करूँ।” इन गवाहीओं ने न केवल गाजा की सच्चाई को उघाड़ा है बल्कि विश्व समुदाय के ज़मीर पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
राहत की कतारों में घुसा शोषण
एजेंसियों की रिपोर्ट बताती हैं कि राहत सामग्री बांटने के दौरान महिलाओं से फ़ोन नंबर लिए गए, फिर देर रात आने लगीं अश्लील कॉल्स। कुछ को नौकरी का झांसा, कुछ को विवाह का भ्रम,और अंततः वही पुरानी कहानी, “भूख मिटाने की कीमत देह बन गई।” मनोवैज्ञानिकों की रिपोर्ट कहती हैं, “कई महिलाएँ मजबूरी में झुक गईं, कई ने इनकार किया और भूख को गले लगाया। कुछ मामले गर्भधारण तक पहुंच गए।”
संघर्ष क्षेत्र की पुरानी त्रासदी
गाजा का यह चेहरा नया नहीं। दक्षिण सूडान, कांगो और हैती में भी राहत अभियानों की आड़ में महिलाओं के शोषण के मामले सामने आ चुके हैं। हर बार अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ ‘जीरो टॉलरेंस’ का दावा करती हैं, पर ज़मीनी हकीकत वही रहती है—‘सबूत दो, तभी सुनवाई होगी।’
मदद या सौदेबाजी
कुछ पीड़ित महिलाओं ने बताया कि राहत सामग्री के बदले उनसे “सेक्शुअल फेवर” मांगे गए। संयुक्त राष्ट्र के प्रतीकों वाली गाड़ियों में बैठे लोग भी इन आरोपों में शामिल बताए गए। सवाल यह है—अगर रोटी के बदले देह मांगी जा रही है, तो फिर यह इंसानियत किस मोर्चे पर बची है?
इंसानियत के आईने में सवाल
आज गाजा की महिलाएँ भूख और अपमान के दोहरे चक्र में फँसी हैं। जहाँ एक ओर बच्चे दूध को तरस रहे हैं, वहीं माताएँ रोटी की एक टिकिया के बदले अपने अस्तित्व की कीमत चुका रही हैं। यह वह युद्ध नहीं जो हथियारों से लड़ा जा रहा है, यह वह युद्ध है जो इंसानियत के भीतर लड़ा जा रहा है।